प्राइवेट स्कूलों में हो रही मनमानी !!!

।आज का जो हमारा टॉपिक है वह देश की लगभग आधी जनसंख्या के लिए शायद किसी काम का ना हो लेकिन देश की बाकी आधी जनसंख्या के लिए उतना ही जरूरी भी है। आज हम बात करने जा रहे हैं प्राइवेट स्कूलों की तरफ से होने वाली मनमानी के बारे में।
हमारे देश के लगभग 46% बच्चे प्राइवेट स्कूल में पढ़ते हैं इन प्राइवेट स्कूलों की संख्या लगभग 5 लाख है और इनमें पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगभग 8 करोड़। अब आप अंदाजा लगा सकते हैं कि देश की इतनी बड़ी जनसंख्या हर रोज किसी न किसी प्राइवेट स्कूल में जा रही है। इतने सारे बच्चे हर रोज देश के किसी ने किसी कोने में किसी ने किसी प्राइवेट स्कूल में पढ़ने के लिए रोज सुबह तैयार होकर अपने घर से निकलते हैं लेकिन उन्हें उस तैयारी तक पहुंचाने के लिए उनके माता-पिता की कमाई का एक मोटा हिस्सा लग चुका होता है। प्राइवेट स्कूलों की फीस के बारे में तो हम क्या ही जिक्र करें। प्राइवेट स्कूलों की फीस जिस तरह से बढ़ती जा रही है लगता है कि एक सामान्य परिवार की आधी से ज्यादा कमाई सिर्फ अपने बच्चों को पढाने में ही खर्च हो जाती है। प्राइवेट स्कूलों में साल दर साल बढ़ने वाली फीस यहीं तक नहीं रुकती, इसके अलावा भी स्कूलों में होने वाले हर रोज के खर्चे जैसे की ट्यूशन फीस, मेंटेनेंस फीस, इलेक्ट्रिसिटी चार्ज, स्पोर्ट्स चार्ज, बिल्डिंग चार्ज न जाने ऐसे कितने चार्ज हैं जो बच्चों की पढ़ाई के नाम पर पेरेंट्स से लिए जा रहे हैं। बड़े-बड़े नामी गिरामी स्कूलों में अपने बच्चों का एडमिशन दिलाने के लिए पेरेंट्स को ना जाने कितनी मशक्कत करनी पड़ती है। कई लोग तो सिफारिश लगाकर अपने बच्चों का एडमिशन करवाते हैं और उसके बाद शुरू होता है भारी भरकम फीस भरने का सिलसिला। सबसे पहले एडमिशन के नाम पर रजिस्ट्रेशन फीस दी जाती है फिर उसके बाद उसके ड्रेस, किताबें और स्टेशनरी इन सब पर भी भारी भरकम भरकम फ़ीस पेरेंट्स से वसूली जाती है। प्राइवेट स्कूलों की यूनिफॉर्म किसी एक खास दुकान पर मिलती है वहां की किताबें किसी और खास दुकान पर मिलती है। इसका मतलब यह भी माना जा सकता है कि कहीं ना कहीं उन किताबों और यूनिफॉर्म से स्कूल संचालकों को भी अच्छा खासा मुनाफा होता होगा। इस बात में कितनी सच्चाई है वह आप तय करें। अब बात करते हैं कि बच्चे की किताबों का पढ़ने वाले बोझ के बारे में। एक छोटी क्लास में पढ़ने वाला मान लीजिए की दूसरी या तीसरी क्लास में पढ़ने वाले बच्चों की किताबों का इतना बोझ हो जाता है कि उसे उठाते उठाते उसकी कमर ही झुक जाती है और उन किताबों को खरीदने के लिए देने वाले पैसों से उनके माता-पिता की कमर तो जैसे टूट ही जाती है। एक पतली सी किताब जिसमें मुश्किल से 20 पन्ने होंगे जो रंग-बिरंगे चित्रों से बनी होगी उसे पर ए बी सी डी या क कबूतर ख खरगोश लिखा होगा लेकिन उस किताब की कीमत ₹400 ₹500 से कम नहीं होगी। वहीं दूसरी तरफ यदि वही किताब एक सरकारी स्कूल में होती तो मात्र 15 से ₹20 मिल जाती तो उसमें लिखी हुई जो सामग्री है उसमें जो कंटेंट लिखा हुआ है वह दोनों ही किताबों में एक समान है। अब कमाल के बात यह है कि यह किताबें उनसे छोटी क्लास वाले बच्चों के काम नहीं आती। एक समय था जब बड़े भाई की किताबें छोटे भाई के काम आ जाती थी बड़े भाई की यूनिफॉर्म छोटे भाई के काम आ जाती थी लेकिन अब किताबें हर साल बदलती है यूनिफॉर्म भी बदलती रहती है इसलिए वह किताबें किसी के काम नहीं आती दूसरी या तीसरी क्लास में पढ़ने वाले बच्चों की किताबें कई हजार रुपए में पड़ती है। इसके अलावा बीच-बीच में होने वाली एक्टिविटीज के नाम पर लिए जाने वाला पैसा भी माता-पिता पर एक अतिरिक्त भार है।


स्कूल से आने के बाद बच्चों को शाम को किसी ने किसी एक्टिविटी या किसी ने किसी ट्यूशन क्लास में भी भेजा जाता है जिसकी एक्स्ट्रा फीस माता-पिता स्कूल से अलग भरता है। अब हजारों लाखों रुपए फीस देने के बाद भी अगर बच्चे को ट्यूशन क्लासेस लेनी पड़े उसे एक्टिविटी के लिए बाहर जाना पड़े तो फिर बड़े-बड़े स्कूलों में पढ़ने का क्या फायदा?
एक स्कूल जिस संस्था के अंतर्गत रजिस्टर होता है वह संस्था नो लॉस नो प्रॉफिट पर काम करती है इसका मतलब यह होता है कि स्कूल से उन्हें ना तो कोई फायदा होगा ना उन्हें कोई नुकसान होगा लेकिन इस बात में कितनी सच्चाई है यह हम नहीं जानते लेकिन हम यह जानते हैं की स्कूल संचालक कभी किसी किराए के मकान में नहीं रहता उसकी काली शान कोठी होती है या एक शानदार घर का मालिक होता है उसके पास एक बड़ी गाड़ी होती है जिसमें वह सफर करता है अभी पैसा कहां से आता है कैसे आता है इस बारे में हमें कोई जानकारी नहीं है।
हम बस इतना जानते हैं कि स्कूल आज के टाइम में नो लॉस ना प्रॉफिट ना हो करके प्योर प्रॉफिट हो गए हैं। हम सरकार से गुजारिश करते हैं कि स्कूल कंट्रोल एक्ट बनाया जाए जिसमें स्कूलों की फीस निर्धारित की जाए, उसमें लगने वाली किताबों के पब्लिकेशन्स निर्धारित किए जाएं, उनमें लगने वाली फीस को एक पारदर्शिता के साथ माता-पिता तक पहुंचाना चाहिए। ऐसा ना हो कि एक मिडिल क्लास परिवार अपनी जिंदगी में अपनी कमाई से ज्यादा सिर्फ और सिर्फ फीस भरता रह जाए


धन्यवाद

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